पहचान


देख कर यूँ दूसरो को, था मै जलता गया
जो चुने थे पथ उन्होंने, उन पर चलता गया..
ना दिशा 
थी ना थी मंज़िल दूर तक था सिर्फ अँधेरा
भूले भटके रास्तो में फिर भी बढ़ता गया...

आ गया जब दूर बहुत, तब मुझे मालूम हुआ
क्या किया था स्पर्श मैंने क्या रह गया अनछुआ..
उनके जैसे बनने की कोशिश फिर ले गयी मुझे वहाँ
पीछे रह गया था गड्ढा, आगे था गहरा कुआं...

आज भी मै सोचता हूँ कहा थी गड़बड़ हो गयी
कर्म थे फूटे मेरे या थी किस्मत सो गयी...
क्यों ईर्ष्या मैंने चुनी जब चुन सकता था आदर्श को
कामयाबी का तो पता नहीं पर, पहचान थी कही खो गयी...

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