एक कविता मेरे गांव के नाम

पिछली बार जब मैं गांव गया तो भाभीजी ने एक कविता लिखने को बोला अब क्योकि कविता मैने कभी लिखी नही तो मैं बड़ी मुश्किल से दो ही पंक्तियाँ लिख पाया। पर यहाँ आके मैने आखिर वो पूरी कर ली। क्योकि कविता भाभीजी को पढ़ानी भी थी तो फटाफट चिठ्ठी लिख के भेज दी। अब ये आपके लिए

चलते चलते एक दिन जब थक गए मेरे पाँव
तब जाना मैने मैं पहुँच गया हूं गांव।
पेड़ हरे थे, हरी थी पहाड़ियां भी
अखरोट का पेड़ भी था और थी सूखी झाड़ियां भी।
गायें, बकरियां, भैंस सब थे
कुत्ता भी था, पर मुर्गे न अब थे।
छोटे खिडकी व दरवाजे वही मिट्टी के घर
पेड़ बहुत है पर सारे खेत बंजर।
चले गए सब छोड़ इसे कर दिया वीरान
कभी हुआ करता था ये लोगो की शान।
पर मुझको अब भी लगता है ये न्यारा
भैया-भाभी , ताई ताऊजी और कान्हा प्यारा।

Comments

Popular Posts