कुछ पंक्तियाँ प्रेमचंद के नाम
ना जाने क्यों पर कर्मभूमि पढ़ लेने के बाद अब तो बस प्रेमचंद को ही पढ़ने का मन करता है। उनके शब्दों में जो जादू है, बातों में जो गहराई है, दर्द है, वो दिल के हर तार को छू जाता है । कुछ ऐसा महसूस होता है जो किसी और काम से कभी हो ही नहीं सकता । उनके शब्दो, भावों का जो रस है बार बार पी लेने को जी चाहता है । मन करता है किसी छोटी सी नौकरी के साथ कही दूर किसी गाँव में उनकी किताबों के साथ जीवन व्यापन करूँ । उनके वो सजीव किरदार जैसे मेहता, अमरकांत, होरी, रामनाथ, सुखदा, जालपा जो दिल और दिमाग में छाप छोड़ देते है, उनका वो कहानी कहने का ढंग, वो कहानी को आगे बढ़ाना और वो मार्मिक और अनूठे उदाहरण उन्हें वो दर्जा दिलाते हैं जो कभी, कोई और न पा सकेगा । वर्षों पहले लिखी वो कहानियाँ, वो उपन्यास, आज भी सजीव मालूम होते है । और कभी यूँ लगता है की उनके शब्दों जैसा मेरा प्यार होता तो मेरा जीवन धन्य हो जाता । उनके लिखने का प्रभाव कुछ ऐसा है की आदमी चाह कर भी उन दृश्यों का चित्रण करने से खुद को रोक नहीं पाता । हर चीज़ में जैसे जान आ जाती है, सब मधुर सुनाई देने लगता है, सब मनोहर लगता है । अगर चिड़िया चहक रही है तो वो सुनाई देता है, मज़दूर काम करते दीखते है, वीणा की आवाज़ सुनती है । सबसे मोह सा हो जाता है । और सबसे बड़ी बात? व्यक्तियो का वार्तालाप करना, प्रेम जताना, गुस्सा करना, पश्चाताप करना, उन शब्दों के साथ जिनसे जीवन का आधार पता चलता है । चाहे किरदार प्रेम कर रहा हो या गुस्सा कर रहा हो शब्दों में वो भाव होता है जो पढ़ने वाला खुद महसूस करता है ।
वो शब्द जो अब सुनने को नहीं मिलते, वो बातें जो कहीं गुम सी हो गयी है, वो बोलचाल का ढंग जो अब नहीं रहा ।
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